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हिंसा के पहले मुझे फिर रुला गया इक शख़्स - अहमद अली बर्क़ी आज़मी कविता - Darsaal

हिंसा के पहले मुझे फिर रुला गया इक शख़्स

हिंसा के पहले मुझे फिर रुला गया इक शख़्स

फ़साना कह के फ़साना बना गया इक शख़्स

दिखा के एक झलक अपनी चश्म-ए-मय-गूँ से

मय-ए-नशात ये कैसी पिला गया इक शख़्स

कहूँ तो कैसे कहूँ इक अजीब मंज़र था

निगार-ख़ाना-ए-हस्ती सजा गया इक शख़्स

ख़लिश सी उठती है रह रह के क़ल्ब-ए-मुज़्तर में

था कैसा तीर-ए-नज़र जो चुभा गया इक शख़्स

न जाने आ गया दाम-ए-फ़रेब में कैसे

था सब्ज़ बाग़ जो मुझ को दिखा गया इक शख़्स

थी जिस से शम-ए-शबिस्तान-ए-ज़िंदगी रौशन

जिला के शम-ए-मोहब्बत बुझा गया इक शख़्स

में उस को देख के होश-ओ-हवास खो बैठा

जब आया होश में उठ कर चला गया इक शख़्स

ख़ुमार जिस का अभी तक है सर में 'बर्क़ी' के

शराब-ए-शौक़ का चसका लगा गया इक शख़्स

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