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ये कैसे बाल खोले आए क्यूँ सूरत बनी ग़म की - आग़ा शायर कविता - Darsaal

ये कैसे बाल खोले आए क्यूँ सूरत बनी ग़म की

ये कैसे बाल खोले आए क्यूँ सूरत बनी ग़म की

तुम्हारे दुश्मनों को क्या पड़ी थी मेरे मातम की

शिकायत किस से कीजे हाए क्या उल्टा ज़माना है

बढ़ाया प्यार जब हम ने मोहब्बत यार ने कम की

जिगर में दर्द है दिल मुज़्तरिब है जान बे कल है

मुझे इस बे-ख़ुदी में भी ख़बर है अपने आलम की

नहीं मिलते न मिलिए ख़ैर कोई मर न जाएगा

ख़ुदा का शुक्र है पहले मोहब्बत आप ने कम की

अदू जिस तरह तुम को देखता है हम समझते हैं

छुपाओ लाख तुम छुपती नहीं है आँख महरम की

मज़ा इस में ही मिलता है नमक छिड़को नमक छिड़को

क़सम ले लो नहीं आदत मिरे ज़ख़्मों को मरहम की

कहाँ जाना है थम-थम कर चलो ऐसी भी किया जल्दी

तुम ही तुम हो ख़ुदा रक्खे नज़र पड़ती है आलम की

कोई ऐसा हो आईना कि जिस में तू नज़र आए

ज़माने भर का झूटा क्या हक़ीक़त साग़र-ए-जम की

घटाएँ देख कर बे-ताब है बेचैन है 'शाइर'

तिरे क़ुर्बान ओ मुतरिब सुना दे कोई मौसम की

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