तुम कहाँ वस्ल कहाँ वस्ल की उम्मीद कहाँ
दिल के बहकाने को इक बात बना रखी है
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न निकला मुँह से कुछ निकली न कुछ भी क़ल्ब-ए-मुज़्तर की
शाइर-ए-रंगीं फ़साना हो गया
बुतों के वास्ते तो दीन-ओ-ईमाँ बेच डाले हैं
कलेजे में हज़ारों दाग़ दिल में हसरतें लाखों
मिरे करीम इनायत से तेरी क्या न मिला
मस्कन वहीं कहीं है वहीं आशियाँ कहीं
ज़र्रा भी अगर रंग-ए-ख़ुदाई नहीं देता
इस लिए कहते थे देखा मुँह लगाने का मज़ा
जब्र को इख़्तियार कौन करे
जिस ने तुझे ख़ल्वत में भी तन्हा नहीं देखा
मैं ख़ुदी में मुब्तिला ख़ुद को मिटाने के लिए
अबरू न सँवारा करो कट जाएगी उँगली