इस लिए कहते थे देखा मुँह लगाने का मज़ा
आईना अब आप का मद्द-ए-मुक़ाबिल हो गया
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क्या कर रहे हो ज़ुल्म करो राह राह का
ज़र्रा भी अगर रंग-ए-ख़ुदाई नहीं देता
किस तरह जवानी में चलूँ राह पे नासेह
इक बात कहें तुम से ख़फ़ा तो नहीं होगे
मिरे करीम इनायत से तेरी क्या न मिला
पहले इस में इक अदा थी नाज़ था अंदाज़ था
लो हम बताएँ ग़ुंचा-ओ-गुल में है फ़र्क़ क्या
मुझ को आता है तयम्मुम न वज़ू आता है
शाइर-ए-रंगीं फ़साना हो गया
बुतों के वास्ते तो दीन-ओ-ईमाँ बेच डाले हैं
जान देते ही बनी इश्क़ के दीवाने से
मैं ख़ुदी में मुब्तिला ख़ुद को मिटाने के लिए