हमीं हैं मौजिब-ए-बाब-ए-फ़साहत हज़रत-ए-'शाइर'
ज़माना सीखता है हम से हम वो दिल्ली वाले हैं
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तुम कहाँ वस्ल कहाँ वस्ल की उम्मीद कहाँ
ज़र्रा भी अगर रंग-ए-ख़ुदाई नहीं देता
इस लिए कहते थे देखा मुँह लगाने का मज़ा
मस्कन वहीं कहीं है वहीं आशियाँ कहीं
उन्स अपने में कहीं पाया न बेगाने में था
जान देते ही बनी इश्क़ के दीवाने से
गिरी गिर कर उठी पलटी तो जो कुछ था उठा लाई
अबरू न सँवारा करो कट जाएगी उँगली
रुख़्सार के परतव से बिजली की नई धज है
जिस ने तुझे ख़ल्वत में भी तन्हा नहीं देखा
मिरे करीम इनायत से तेरी क्या न मिला
बड़े सीधे-साधे बड़े भोले-भाले