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मिरे करीम इनायत से तेरी क्या न मिला - आग़ा शाएर क़ज़लबाश कविता - Darsaal

मिरे करीम इनायत से तेरी क्या न मिला

मिरे करीम इनायत से तेरी क्या न मिला

गुनाह कर के भी बे-मुज़द आब-ओ-दाना मिला

अजल न थी तेरी क़िस्मत में वर्ना ऐ बुलबुल

वहीं तो दाम भी था जिस जगह से दाना मिला

शुमार किस से हो नक़्श-ओ-निगार क़ुदरत का

जिधर निगाह पड़ी इक नया ख़ज़ाना मिला

करम का लुत्फ़ न पाया सितम की लज़्ज़त से

कली कली से मुझे ज़ख़्म-ए-ताज़ियाना मिला

बिठा दिया था मुझे जोशिश-ए-हवादिस ने

बड़ी कशिश से सर-ए-मौज इक ठिकाना मिला

जहाँ में ख़ाक के ज़र्रे को सर-बुलंदी क्या

उरूज-ए-माह मिला भी तो यक शबाना मिला

किया है फ़ैसला क़स्साम-ए-ख़ल्क़ ने क्या ख़ूब

बशर को ज़ीस्त मिली मौत को बहाना मिला

सदफ़ ने ज़ुल्म किया छोड़ दी जो फ़िक्र-ओ-तलाश

जभी तो रिज़्क़ में पत्थर का एक दाना मिला

हम इस ख़याल के तक़्सीर-वार हैं 'शाइर'

जहाँ भर में कोई दोस्त बा-वफ़ा न मिला

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