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मैं ख़ुदी में मुब्तिला ख़ुद को मिटाने के लिए - आग़ा शाएर क़ज़लबाश कविता - Darsaal

मैं ख़ुदी में मुब्तिला ख़ुद को मिटाने के लिए

मैं ख़ुदी में मुब्तिला ख़ुद को मिटाने के लिए

तू ने तो हर ज़र्रे को ज़ौ दी जगमगाने के लिए

एक अदना से पतिंगे ने बना दी जान पर

शम्अ ने कोशिश तो की थी दिल जलाने के लिए

बर्क़-ए-ख़िर्मन सोज़ाब रखना ज़रा चश्म-ए-करम

चार तिनके फिर जड़े हैं आशियाने के लिए

मुँह नहीं हर एक का जो सख़्ती-ए-गर्दूं सहे

कुछ कलेजा चाहिए वो ज़ख़्म खाने के लिए

ख़ूब बुलबुल को सिखाया नाला-ए-मस्ताना-वार

ख़ूब ग़ुंचे को समझ दी मुस्कुराने के लिए

इस क़दर अर्ज़ां हुई है आज कल जिंस-ए-कमाल

झूटे सिक्के ढल रहे हैं हर ख़ज़ाने के लिए

ख़्वाब में भी अब नहीं 'शाइर' वो गर्मी-ए-कलाम

शम्अ सी इक रह गई है झिलमिलाने के लिए

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