तेज़ कब तक होगी कब तक बाढ़ रक्खी जाएगी
अब तो ऐ क़ातिल तिरी शमशीर आधी रह गई
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ख़ल्वत-सरा-ए-यार में पहुँचेगा क्या कोई
इश्क़-ए-दहन में गुज़री है क्या कुछ न पूछिए
नहीं करते वो बातें आलम-ए-रूया में भी हम से
आलम में हरे होंगे अश्जार जो मैं रोया
हमेशा शेफ़्ता रखती है अपने हुस्न-ए-क़ुदरत का
इलाही ख़ैर जो शर वाँ नहीं तो याँ भी नहीं
बे-वफ़ा तुम बा-वफ़ा मैं देखिए होता है क्या
दुनिया जो न मैं चंद नफ़स के लिए लेता
इश्क़-बाज़ों की कहीं दुनिया में शुनवाई नहीं
चलते हैं गुलशन-ए-फ़िरदौस में घर लेते हैं
सलफ़ से लोग उन पे मर रहे हैं हमेशा जानें लिया करेंगे
पुर-नूर जिस के हुस्न से मदफ़न था कौन था