शाख़-ए-गुल झूम के गुलज़ार में सीधी जो हुई
फिर गया आँख में नक़्शा तिरी अंगड़ाई का
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इश्क़-ए-दहन में गुज़री है क्या कुछ न पूछिए
कभी जो यार को देखा तो ख़्वाब में देखा
वो रंगत तू ने ऐ गुल-रू निकाली
पाया तिरे कुश्तों ने जो मैदान-ए-बयाबाँ
जवानी आई मुराद पर जब उमंग जाती रही बशर की
बुलबुल का दिल ख़िज़ाँ के सदमे से हिल रहा है
जश्न था ऐश-ओ-तरब की इंतिहा थी मैं न था
रुलवा के मुझ को यार गुनहगार कर नहीं
क़रीब-ए-मर्ग हूँ लिल्लाह आईना रख दो
लिक्खा है जो तक़दीर में होगा वही ऐ दिल