मूजिद जो नूर का है वो मेरा चराग़ है
परवाना हूँ मैं अंजुमन-ए-काएनात का
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बे-वफ़ा तुम बा-वफ़ा मैं देखिए होता है क्या
घिसते घिसते पाँव में ज़ंजीर आधी रह गई
लुटाते हैं वो बाग़-ए-इश्क़ जाए जिस का जी चाहे
दिल में आमद आमद उस पर्दा-नशीं की जब सुनी
रंग जिन के मिट गए हैं उन में यार आने को है
वो रंगत तू ने ऐ गुल-रू निकाली
पाया तिरे कुश्तों ने जो मैदान-ए-बयाबाँ
क़रीब-ए-मर्ग हूँ लिल्लाह आईना रख दो
हुए ऐसे ब-दिल तिरे शेफ़्ता हम दिल-ओ-जाँ को हमेशा निसार किया
कहा जो मैं ने मेरे दिल की इक तस्वीर खिंचवा दो
नहीं करते वो बातें आलम-ए-रूया में भी हम से
दो वक़्त निकलने लगी लैला की सवारी