देखने भी जो वो जाते हैं किसी घायल को
इक नमक-दाँ में नमक पीस के भर लेते हैं
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सन्नाटे का आलम क़ब्र में है है ख़्वाब-ए-अदम आराम नहीं
तीर-ए-नज़र से छिद के दिल-अफ़गार ही रहा
चाहिएँ मुझ को नहीं ज़र्रीं क़फ़स की पुतलियाँ
रहा करते हैं यूँ उश्शाक़ तेरी याद ओ हसरत में
बुलबुल का दिल ख़िज़ाँ के सदमे से हिल रहा है
परी-पैकर जो मुझ वहशी का पैराहन बनाते हैं
चलते हैं गुलशन-ए-फ़िरदौस में घर लेते हैं
तेज़ कब तक होगी कब तक बाढ़ रक्खी जाएगी
नहीं करते वो बातें आलम-ए-रूया में भी हम से
नाहक़ ओ हक़ का उन्हें ख़ौफ़-ओ-ख़तर कुछ भी नहीं
मौसम-ए-गुल में जो घिर घिर के घटाएँ आईं
तू नहीं मिलती तो हम भी तुझ को मिलने के नहीं