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वो रंगत तू ने ऐ गुल-रू निकाली - आग़ा हज्जू शरफ़ कविता - Darsaal

वो रंगत तू ने ऐ गुल-रू निकाली

वो रंगत तू ने ऐ गुल-रू निकाली

निछावर को गुलों ने बू निकाली

मिज़ाज-ए-बू-ए-सुम्बुल कर के मौक़ूफ़

सबा नय निकहत-ए-गेसू निकाली

न थी जाने की उस तक राह दिल की

छुरी से चीर के पहलू निकाली

निकासी जब न देखी यास दिल की

बहा के आठ आठ आँसू निकाली

हमारी रूह इक रश्क-ए-चमन ने

सुँघा के फूल की ख़ुशबू निकाली

मिरे सय्याद ने बुलबुल की मय्यत

क़फ़स से तोड़ के बाज़ू निकाली

किया उस से जो ख़ुश-चश्मी का दावा

तिरी जाएगी आँख आहू निकाली

सुलैमानी दिखा दी शान तुम ने

परी-रू माँग वो ख़ुश-रू निकाली

निकाला हुस्न का अरमान तू ने

मिरी हसरत न ऐ दिल-जू निकाली

चमन में भीनी भीनी बू ने उन की

न बसने दी गई शब्बू निकाली

दहान-ए-ज़ख़्म से तलवार चूमी

ब-शक्ल-ए-बोसा-ए-अब्रू निकाली

क़यामत का शबाब उस ने निकाला

'शरफ़' चंगेज़-ख़ानी ख़ू निकाली

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