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लुटाते हैं वो बाग़-ए-इश्क़ जाए जिस का जी चाहे - आग़ा हज्जू शरफ़ कविता - Darsaal

लुटाते हैं वो बाग़-ए-इश्क़ जाए जिस का जी चाहे

लुटाते हैं वो बाग़-ए-इश्क़ जाए जिस का जी चाहे

गुल-ए-दाग़-ए-तमन्ना लूट लाए जिस का जी चाहे

चराग़-ए-यास-ओ-हसरत हम हैं महफ़िल में हसीनों की

जलाए जिस का जी चाहे बुझाए जिस का जी चाहे

कसी माशूक़ की कोई ख़ता मैं ने नहीं की है

सताने को ज़बर्दस्ती सताए जिस का जी चाहे

ब-हल शौक़-ए-शहादत में किया है हम ने ख़ून अपना

हमारे शौक़ से पुर्ज़े उड़ाए जिस का जी चाहे

दो-आलम में नहीं ऐ यार मुझ सा शेफ़्ता तेरा

मोहब्बत यूँ जताने को जताए जिस का जी चाहे

ख़ुशी ओ ना-ख़ुशी मौक़ूफ़ है अपनी हसीनों पर

हँसाए जिस का जी चाहे रुलाए जिस का जी चाहे

सदाएँ सुर्ख़-रूई देती है गंज-ए-शहीदाँ में

लहू का मेंह बरसता है नहाए जिस का जी चाहे

जो हो जाएगा परवाना चराग़-ए-हुस्न का उस के

करेगा नाम रौशन लौ लगाए जिस का जी चाहे

अजाइब लुत्फ़ हैं कू-ए-तवक्कुल की फ़क़ीरी में

ख़ुदाई है यहाँ धूनी रमाए जिस का जी चाहे

कोई ग़ुंचा न पहुँचेगा तिरे हुस्न-ए-तबस्सुम को

सर-ए-मैदाँ चमन में मुस्कुराए जिस का जी चाहे

जगह उस शम्अ'-रू ने दी है परवानों के लश्कर को

सर-ए-मैदाँ चमन मैं मुस्कुराए जिस का जी चाहे

पशेमाँ ग़ुंचा-ओ-गुल होंगे मेरे ज़ख़्म-ए-ख़ंदाँ से

हँसे जी चाहे जिस का मुस्कुराए जिस का जी चाहे

अता की नहर-ए-गुलशन उस ने अपने इश्क़-बाज़ों को

इजाज़त दी यहाँ निखरे नहाए जिस का जी चाहे

ख़ुशी हो हो के ख़ुद सय्याद कहता है अनादिल से

बहार आई हुई है चहचहाए जिस का जी चाहे

न देखेंगे किसी बेताब को वो आँख उठा के भी

कलेजे को मसोसे तिलमिलाए जिस का जी चाहे

मरेंगे उस पे कलमा पढ़ के उस का जान हम देंगे

ख़ुदाई भर में हम को आज़माए जिस का जी चाहे

अजब ख़ुशबू है गुल-दस्ते में शौक़-ओ-ज़ौक़ के उस की

करेगा वज्द पैराहन बसाए जिस का जी चाहे

दुआ-ए-मग़्फ़िरत तुम दो उतारे क़ब्र में कोई

पढ़ो तल्क़ीन तुम शाना हिलाए जिस का जी चाहे

'शरफ़' दम तोड़ते हैं इक परी-रू की जुदाई में

अजब आलम है उन का देख आए जिस का जी चाहे

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