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फ़स्ल-ए-गुल में है इरादा सू-ए-सहरा अपना - आग़ा हज्जू शरफ़ कविता - Darsaal

फ़स्ल-ए-गुल में है इरादा सू-ए-सहरा अपना

फ़स्ल-ए-गुल में है इरादा सू-ए-सहरा अपना

रंग क्या देखिए दिखलाता है सौदा अपना

इश्क़ में हम जो मिटाते हैं किसी को क्या काम

जान अपनी है दिल अपना है कलेजा अपना

आह हम करते हैं ऐ यार के महफ़िल वालो

दोनों हाथों से जिगर थाम लो अपना अपना

पूछते क्या हो जुदाई में जो गुज़री गुज़री

तुम को मालूम है सब हाल कहें क्या अपना

कोई मुश्ताक़ रहा जल्वा किसी ने देखा

इस को क्या कीजिए मक़्सूम है अपना अपना

ज़िंदगी शर्त है क्या दर्द-ए-जिगर से होगा

अपने हक़ में तो दम अपना है मसीहा अपना

काम आया अमल-ए-नेक मिरा तुर्बत में

लिल्लाहिल-हम्द कि इक दोस्त तो निकला अपना

पूछते हैं जो कोई नाम मिरा लेता है

जानते हैं वो मुझे आशिक़-ए-शैदा अपना

नज्द में दर्द-ए-जिगर क़ैस बयाँ करता है

ख़ूब ही रोएगी दिल थाम के लैला अपना

शहर से भागते हैं दश्त में घबराते हैं

दिल बहलता ही नहीं अब तो किसी जा अपना

एड़ियाँ मुझ से रगड़वाएगी मजनूँ की तरह

नाम रक्खा है शब-ए-वस्ल ने लैला अपना

ऐ 'शरफ़' ख़ैर तो है हाल है क्यूँ सकते का

आइना ले के ज़रा देखो तो चेहरा अपना

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