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दरपेश अजल है गंज-ए-शहीदाँ ख़रिदिए - आग़ा हज्जू शरफ़ कविता - Darsaal

दरपेश अजल है गंज-ए-शहीदाँ ख़रिदिए

दरपेश अजल है गंज-ए-शहीदाँ ख़रिदिए

तुर्बत के वास्ते चमनिस्ताँ ख़रिदिए

सौदा पुकारता है ये फ़स्ल-ए-बहार में

गुलशन न मोल लीजिए ज़िंदाँ ख़रिदिए

बाज़ार में ये करती हैं ग़ुल मेरी बेड़ियाँ

सोहन हमारे काटने को याँ ख़रिदिए

रफ़्त-ओ-गुज़श्त भी हुआ वहशत का वलवला

सोज़न बराए-चाक-ए-गरेबाँ ख़रिदिए

ले लीजिए मिरा दिल-ए-सद-चाक मुफ़्त है

शाना बराए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ ख़रिदिए

बाज़ार-ए-मुस्तफ़ा है ख़रीदार है ख़ुदा

ख़ुद बिकए याँ न कुछ किसी उनवाँ ख़रिदिए

जिस वक़्त जा निकलते हैं बाज़ार-ए-हुसन में

हिम्मत ये कहती है कि परिस्ताँ ख़रिदिए

हुल्ला कोई मँगाइए जाँ दी है आप पर

ख़िलअत हमारे वास्ते ऐ जाँ ख़रिदिए

तुर्बत पे मेरी होगी तकल्लुफ़ की रौशनी

काफ़ूर बहर-ए-शम्-ए-शबिस्ताँ ख़रिदिए

करते हैं शोर गंज-ए-शहीदाँ में गुल-फ़रोश

चादर बराए-गोर-ए-ग़रीबाँ ख़रिदिए

वहशत में मुश्क की न रसद मुफ़्त लीजिए

सौदा है बू-ए-काकुल-ए-पेचाँ ख़रिदिए

होता है शौक़-ए-इश्क़ में रह रह के वलवला

मजनूँ से दाग़-ए-दिल सर-ए-मैदाँ ख़रिदिए

हर-सू अमल जुनूँ के क़लम-रौ में चाहिए

ढुंडवा के एक एक बयाबाँ ख़रिदिए

होते हैं जज़्ब-ए-इश्क़ से परियों के जमघटे

इक मुल्क मिस्ल-ए-मुल्क-ए-सुलैमाँ ख़रिदिए

चौरंग खेलने में हरीफ़ों के ऐ 'शरफ़'

बचिए तो तेग़-ए-रुस्तम-ए-दसताँ ख़रिदिए

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