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चाहिएँ मुझ को नहीं ज़र्रीं क़फ़स की पुतलियाँ - आग़ा हज्जू शरफ़ कविता - Darsaal

चाहिएँ मुझ को नहीं ज़र्रीं क़फ़स की पुतलियाँ

चाहिएँ मुझ को नहीं ज़र्रीं क़फ़स की पुतलियाँ

आशियाँ जानूँ जो होवें ख़ार-ओ-ख़स की पुतलियाँ

हो गईं बे-रंग जब अगले बरस की पुतलियाँ

ख़ून रो कर हम ने कीं रंगीं क़फ़स की पुतलियाँ

है ये फ़ौलादी क़फ़स मुझ ना-तवाँ का क्या करूँ

किस तरह तोड़ूँ नहीं हैं मेरे बस की पुतलियाँ

क्या ख़ुदा की शान है आती है जब फ़स्ल-ए-बहार

सब हरी हो जाती हैं मेरे क़फ़स की पुतलियाँ

जब कभी कुंज-ए-क़फ़स में की है मैं ने आह-ए-गर्म

मोम हो कर बह गई हैं पेश-ओ-पस की पुतलियाँ

घर क़फ़स को मैं समझता हूँ असीरी को मुराद

जानता हूँ अपनी आहों को हवस की पुतलियाँ

पटरियाँ मेरे क़फ़स की शाख़-ए-गुल से कम नहीं

लोच ये देखा न देखीं ऐसी रस की पुतलियाँ

गूँजने लगता है ये भी जब फ़ुग़ाँ करता हूँ मैं

नस्ब हैं मेरे क़फ़स में क्या जरस की पुतलियाँ

देखिए शौक़-ए-असीरी में जकड़ने के लिए

हो गईं रेशम का लच्छा सब क़फ़स की पुतलियाँ

रो रही है देख कर लैला जो उस को ऐ 'शरफ़'

पसलियाँ मजनूँ की हैं मेरे क़फ़स की पुतलियाँ

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