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फ़ुसूँ टूटता है - अफ़ज़ल परवेज़ कविता - Darsaal

फ़ुसूँ टूटता है

ये तजरीदी ख़ाकों की तस्वीर-गह है

मिरा मुँह चिड़ाने को दीवार-ओ-दर पर कई मस्ख़ पैकर टँगे हैं

मुझे घूरते हैं डराते हैं मुझ को

मैं उन सीधी-उल्टी लकीरों के दाम-ए-रिया में उलझ गया हूँ

बिल-आख़िर फुसून-ए-रिया टूटता है

निगह एक तस्वीर के चौखटे पर लगी चिट पर आ कर रुकी है

वहाँ उस की क़ीमत लिखी है

जिसे देख कर मैं फिर उस पैकर-ए-मस्ख़ को देखता हूँ

जहाँ इक भयानक दहन है

जो बद-रंग माथे पर फैला हुआ है

सदा आ रही है

ये बाज़ार है मिस्र का

इस में मेआ'र की कोई क़ीमत नहीं है

यहाँ एक अंटी पे यूसुफ़ से पैग़ाम्बर बिक चुके हैं

यहाँ बल्कि क़ीमत ही मेआ'र ठहरे

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