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मैं ने दिल-ए-बे-ताब पे जो जब्र किया है - अफ़ज़ल परवेज़ कविता - Darsaal

मैं ने दिल-ए-बे-ताब पे जो जब्र किया है

मैं ने दिल-ए-बे-ताब पे जो जब्र किया है

ख़ूँ हो के मेरी आँखों से अब छूट बहा है

जिस को किसी आज़र ने है पत्थर से तराशा

अब शूमी-ए-तक़दीर से वो मेरा ख़ुदा है

उस के सितम-ओ-जौर का एहसास किसे हो

उस शोख़ की सूरत ही बड़ी होश-रुबा है

मुझ बेकस-ओ-आवारा की फिर आ गई शामत

सुनता हूँ कि बस्ती में कहीं क़त्ल हुआ है

तुम उन को सज़ा क्यूँ नहीं देते कि जिन्हों ने

मुजरिम का ज़मीर और सुकूँ लूट लिया है

अब दा'वा-ए-इंसाफ़ की औक़ात खुलेगी

ख़ुद शैख़ मिरे शहर का मुख़्तार बना है

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