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गर्द उड़े या कोई आँधी ही चले - अफ़ज़ल परवेज़ कविता - Darsaal

गर्द उड़े या कोई आँधी ही चले

गर्द उड़े या कोई आँधी ही चले

ये उमस तो किसी उनवान टले

अंग पर ज़ख़्म लिए ख़ाक मले

आन बैठे हैं तिरे महल तले

अपना घर शहर-ए-ख़मोशाँ सा है

कौन आएगा यहाँ शाम ढले

दिल-ए-परवाना पे क्या गुज़रेगी

जब तलक धूप बुझे शम्अ' जले

रूप की जोत है काला जादू

इक छलावा कि फ़रिश्तों को छले

दलदलों में भी कँवल खिलते हैं

नख़्ल-ए-उम्मीद बहर-तौर भले

अपने ही रैन-बसेरों की तरफ़

लौट आए हैं सभी शाम ढले

मय-कदे में तो नशा बटता है

कौन याँ जाँचे बुरे और भले

रौशनी देख के चुँधिया जाएँ

जो अँधेरों में बढ़े और पले

ख़ार तो सैफ़ बनेगा गुल की

ये भले ही किसी गुलचीं को खले

रात बाक़ी है अभी तो 'परवेज़'

बादा सर-जोश रहे दौर चले

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