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सुबू उठाऊँ तो पीने के बीच खुलती है - अफ़ज़ाल नवेद कविता - Darsaal

सुबू उठाऊँ तो पीने के बीच खुलती है

सुबू उठाऊँ तो पीने के बीच खुलती है

कोई गली मेरे सीने के बीच खुलती है

तमाम रात सितारे तलाश करते हैं

वो चाँदनी किसी ज़ीने के बीच खुलती है

तू देखता है तो तश्कील पाने लगता हूँ

मिरी बिसात नगीने के बीच खुलती है

गिरफ़्त-ए-होश नहीं सहल दस्त-बरादारी

गिरह ये सख़्त क़रीने के बीच खुलती है

किनारा-ए-मह-ओ-अंजुम जहाँ तिलक भी हो

ये रौशनी इसी जीने के बीच खुलती है

न बादबान कोई और न रूद-ओ-सम्त-ओ-सुकूँ

तो किस की खींच सफ़ीने के बीच खुलती है

रुकूँ तो देख सकूँ आसमान की खिड़की

जो एक बार महीने के बीच खुलती है

ज़रा सा और भी कीना ऐ कीना-परवर-ए-जाँ

मिरी नज़र तिरे कीने के बीच खुलती है

ये कौन छोड़ गया है मक़ाम-ए-अस्ल 'नवेद'

ये किस की बास दफ़ीने के बीच खुलती है

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