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न रोना रह गया बाक़ी न हँसना रह गया बाक़ी - अफ़ज़ाल नवेद कविता - Darsaal

न रोना रह गया बाक़ी न हँसना रह गया बाक़ी

न रोना रह गया बाक़ी न हँसना रह गया बाक़ी

इक अपने आप पर आवाज़े कसना रह गया बाक़ी

हमारी ख़ुद-फ़रामोशी ये दुनिया जान जाएगी

ज़रा सा और इस दलदल में धंसना रह गया बाक़ी

हवस के नाग ने दिन रात रक्खा अपने चंगुल में

बहुत खेला हमारे तन से डसना रह गया बाक़ी

किसी के प्यार का क़िस्सा अधूरा छोड़ आए हम

उलझना ख़ुद से और हर दम तरसना रह गया बाक़ी

किसी को रश्क आए क्यूँ न क़िस्मत पर हमारी अब

उजड़ आए हैं हर जानिब से बसना रह गया बाक़ी

किसी की आँख ने ख़्वाब-ए-तहय्युर तान रक्खा है

'नवेद' उस दाम-ए-यकताई में फँसना रह गया बाक़ी

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