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एक उजली उमंग उड़ाई थी - अफ़ज़ाल नवेद कविता - Darsaal

एक उजली उमंग उड़ाई थी

एक उजली उमंग उड़ाई थी

हम ने तुम ने पतंग उड़ाई थी

शाम बारिश में तेरे चेहरे से

अब्र ने क़ौस-ए-रंग उड़ाई थी

मैं ने बचपन की ख़ुशबू-ए-नाज़ुक

एक तितली के संग उड़ाई थी

अपनी ही अज़-रह-ए-तफ़न्नुन-ए-तबअ'

धज्जी-ए-नाम-ओ-नंग अड़ाई थी

ख़्वाब ने किस ख़ुमार की ख़ाशाक

दरमियान-ए-पलंग उड़ाई थी

कोई बैरूनी आँच थी जिस ने

अंदरूनी तरंग उड़ाई थी

छीन कर एक दूसरे की बक़ा

हम ने तज़हीक-ए-जंग उड़ाई थी

एहतिमाम-ए-धमाल खो बैठा

किस ने ख़ाक-ए-मलंग उड़ाई थी

मेरे चारों तरफ़ लबों की धनक

उस ने लगते ही अंग उड़ाई थी

हम ने पूछा नहीं हमारी अना

किस से हो कर दबंग उड़ाई थी

फुलझड़ी थी कि तेरे कूचे में

तान गा कर तलंग उड़ाई थी

ख़ुद से था बैर पानी में रह कर

हम ने मौज-ए-नहंग उड़ाई थी

एक दिन हम ने हाथ फैला कर

चादर-पा-ए-तंग उड़ाई थी

परख़चे चारों ओर बिखरे थे

इक बदन ने सुरंग उड़ाई थी

फेंक कर अपने दोस्तों की तरफ़

इज़्ज़-ओ-जाह-ए-ख़दंग उड़ाई थी

ज़ाइक़ा जा सका न मुँह से 'नवेद'

दावत-ए-शोख़-ओ-शंग उड़ाई थी

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