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दिखाई दे कि शुआ-ए-बसीर खींचता हूँ - अफ़ज़ाल नवेद कविता - Darsaal

दिखाई दे कि शुआ-ए-बसीर खींचता हूँ

दिखाई दे कि शुआ-ए-बसीर खींचता हूँ

ग़ुबार खींच जिगर का लकीर खींचता हूँ

दिखाई देता हूँ तन्हा सफ़ीने में लेकिन

किनारे लगते ही जम्म-ए-ग़फ़ीर खींचता हूँ

मिरे जिलौ से कोई कहकशाँ नहीं बचती

मैं खींचने पे जो आऊँ अख़ीर खींचता हूँ

उमड पड़ी है जो यकसर ख़िज़ाँ के धारे से

गुलाबी-ए-निगह-ए-ना-गुज़ीर खींचता हूँ

फ़िशार पड़ता है गहरा कोई रग-ओ-पै में

कली कली से सुबू-ए-अबीर खींचता हूँ

कि जैसे ख़ुद से मुलाक़ात हो नहीं पाती

जहाँ से उट्ठा हुआ है ख़मीर खींचता हूँ

हज़ारों आइने हर लहज़ा ख़ाली होते हैं

पलट पलट के वही अक्स-ए-पीर खींचता हूँ

मुफ़ाहमत से जो हद पार हो तो हो जाए

बँधा हुआ रग-ए-जाँ से ज़मीर खींचता हूँ

जिन आसमानों में सय्याल-ए-वक़्त साकित है

कमंद डाल वहाँ जू-ए-शीर खींचता हूँ

मगर हवा-ओ-हवस पर ही ख़र्च हो जाए

हर एक झोंके से बाद-ए-कसीर खींचता हूँ

इरादे भाँप तिरे जा धड़कता है दर पर

पड़ा हुआ पस-ए-ज़िंदाँ असीर खींचता हूँ

बग़ैर भेद न अन-होनी से बचा जाए

पलट के आता है अक्सर जो तीर खींचता हूँ

तिलिस्म-ए-ज़ुल्फ़ हिफ़ाज़त का पिंजरा हो जैसे

मज़े जहान के हो कर असीर खींचता हूँ

ये देख कार-ए-जहाँ ने न धज्जियाँ छोड़ीं

तिरी गली की तरफ़ अब शरीर खींचता हूँ

'नवेद' कर तो दिया शहर-ए-आइना पामाल

अब अंदरूनी सफ़-ए-दार-ओ-गीर खींचता हूँ

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