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आँचल में नज़र आती हैं कुछ और सी आँखें - अफ़ज़ाल नवेद कविता - Darsaal

आँचल में नज़र आती हैं कुछ और सी आँखें

आँचल में नज़र आती हैं कुछ और सी आँखें

छा जाती हैं एहसास पे बिल्लोर सी आँखें

रहती है शब-ओ-रोज़ में बारिश सी तिरी याद

ख़्वाबों में उतर जाती हैं घनघोर सी आँखें

पैमाने से पैमाने तलक बादा-ए-लालीं

आग़ाज़ से अंजाम तलक दौर सी आँखें

ले कर कहाँ रहती रही मोती सी वो सूरत

ले कर कहाँ फिरता रहा में गोर सी आँखें

वक़्त आने पे आई न नज़र गर्दिश-ए-अफ़्लाक

बैठा रहा ले कर मैं किसी और सी आँखें

तब्दीली तिरे देखते रहने से ये आई

बिन बैठीं तसलसुल से तिरे तूर सी आँखें

बिल-फ़र्ज़ निकल जाऊँ किसी अंधे सफ़र पर

बाँधे हुए रखती हैं मुझे डोर सी आँखें

हर बार किनारे से लगा कर चली जाएँ

धुंदलाहटों में ग़मज़ा-ए-फ़िलफ़ौर सी आँखें

क्या जाने 'नवेद' और ही कर जाएँ उजाला

क़िर्तास-ए-फ़रोज़ाँ पे तिरी कोर सी आँखें

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