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मुझे बतलाईए अब कौन सी जीने की सूरत है - अफ़ज़ल मिनहास कविता - Darsaal

मुझे बतलाईए अब कौन सी जीने की सूरत है

मुझे बतलाईए अब कौन सी जीने की सूरत है

ज़माना इस घने जंगल में इक चीते की सूरत है

बिखरते जिस्म ले कर तुंद तूफ़ानों में बैठे हैं

कोई ज़र्रे की सूरत है कोई टीले की सूरत है

चुरा लाया था आँखों में जो इक तस्वीर दुनिया की

वो अब सहरा में इक सहमे हुए बच्चे की सूरत है

मिरी तहरीर के हर लफ़्ज़ में ज़िंदा हैं आवाज़ें

मगर हैरान हूँ चेहरा मिरा कत्बे की सूरत है

ये कैसी आग है 'अफ़ज़ल' जले साए भी पेड़ों के

धुएँ में किस तरफ़ जाऊँ अजब रस्ते की सूरत है

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