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मिटते हुए नुक़ूश-ए-वफ़ा को उभारिए - अफ़ज़ल मिनहास कविता - Darsaal

मिटते हुए नुक़ूश-ए-वफ़ा को उभारिए

मिटते हुए नुक़ूश-ए-वफ़ा को उभारिए

चेहरों पे जो सजा है मुलम्मा' उतारिए

मिलना अगर नहीं है तो ज़ख़्मों से फ़ाएदा

छुप कर मुझे ख़याल के पत्थर न मारिए

कोई तो सरज़निश के लिए आए इस तरफ़

बैठे हुए हैं दिल के मकाँ में जुवारिए

हाथों पे नाचती है अभी मौत की लकीर

जैसे भी हो ये ज़ीस्त की बाज़ी न हारिए

शिकवा न कीजिए अभी अपने नसीब का

साँसों की तेज़ आँच पे हर शब गुज़ारिए

मिस्मार हो गई हैं फ़लक-बोस चाहतें

शहर-ए-जफ़ा से अब न मुझे यूँ पुकारिए

फूलों से ताज़गी की हरारत को छीन कर

मौसम के ज़हर के लिए गुलशन सँवारिए

रुस्वाइयों का होगा न अब सामना कभी

जल्दी से आरज़ू को लहद में उतारिए

'अफ़ज़ल' ये तीरगी के मुसाफ़िर कहाँ चले

जी चाहता है इन पे कई चाँद मारिए

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