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मैं फ़क़त इस जुर्म में दुनिया में रुस्वा हो गया - अफ़ज़ल मिनहास कविता - Darsaal

मैं फ़क़त इस जुर्म में दुनिया में रुस्वा हो गया

मैं फ़क़त इस जुर्म में दुनिया में रुस्वा हो गया

मैं ने जिस चेहरे को देखा तेरे जैसा हो गया

चाँद में कैसे नज़र आए तिरी सूरत मुझे

आँधियों से आसमाँ का रंग मैला हो गया

एक मैं ही रौशनी के ख़्वाब को तरसा नहीं

आज तो सूरज भी जब निकला तो अंधा हो गया

ये भी शायद ज़िंदगी की इक अदा है दोस्तो

जिस को साथी मिल गया वो और तन्हा हो गया

एक पत्थर ज़िंदगी ने ताक कर मारा मुझे

चोट वो खाई कि सारा जिस्म दोहरा हो गया

मिल गया मिट्टी में जब 'अफ़ज़ल' तो ये आई सदा

गिर गई दीवार और साया अकेला हो गया

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