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जो शख़्स भी मिला है वो इक ज़िंदा लाश है - अफ़ज़ल मिनहास कविता - Darsaal

जो शख़्स भी मिला है वो इक ज़िंदा लाश है

जो शख़्स भी मिला है वो इक ज़िंदा लाश है

इंसाँ की दास्तान बड़ी दिल-ख़राश है

दामन दरीदा क़ल्ब-ओ-नज़र ज़ख़्म ज़ख़्म हैं

अब शहर-ए-आरज़ू में यही बूद-ओ-बाश है

बस अब तो रह गई है दिखावे की ज़िंदगी

साँसों के तार तार में एक इर्तिआ'श है

मिट्टी ने पी लिया है हरारत भरा लहू

जोश-ए-नुमू मिला तो बदन क़ाश क़ाश है

काँटों ने भी ख़िज़ाँ की ग़ुलामी क़ुबूल की

देखो तो आज चेहरा-ए-गुल पुर-ख़राश है

वो दौर अब कहाँ कि तुम्हारी हो जुस्तुजू

इस दौर में तो हम को ख़ुद अपनी तलाश है

'अफ़ज़ल' वो बन सँवर के तो आ जाएँगे कभी

आईना-ए-हयात मगर पाश पाश है

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