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गहरा सुकूत ज़ेहन को बेहाल कर गया - अफ़ज़ल मिनहास कविता - Darsaal

गहरा सुकूत ज़ेहन को बेहाल कर गया

गहरा सुकूत ज़ेहन को बेहाल कर गया

सोचों के फूल फूल को पामाल कर गया

सूरज ने अपनी आँच को वापस बुला लिया

लेकिन मिरे लहू को वो सय्याल कर गया

क्या फ़ैसला दिया है अदालत ने छोड़िए

मुजरिम तो अपने जुर्म का इक़बाल कर गया

जो लोग दूर थे वो बहुत दूर हो गए

ये ताज़ा हादिसा भी गया साल कर गया

सहमे हुए हैं चारों तरफ़ रौशनी के अक्स

इक हाथ आ के सुर्ख़ कई गाल कर गया

मैं दो क़दम चला था कि ढलवान आ गई

'अफ़ज़ल' सफ़र तो मेरा बुरा हाल कर गया

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