ये नुक्ता इक क़िस्सा-गो ने मुझ को समझाया
हर किरदार के अंदर एक कहानी होती है
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कल अपने शहर की बस में सवार होते हुए
इक वडेरा कुछ मवेशी ले के बैठा है यहाँ
आदमी ख़्वार भी होता है नहीं भी होता
आज ही फ़ुर्सत से कल का मसअला छेड़ूँगा मैं
तेरे जाने से ज़्यादा हैं न कम पहले थे
ज़रा ये दूसरा मिस्रा दुरुस्त फ़रमाएँ
बिछड़ने का इरादा है तो मुझ से मशवरा कर लो
ये जो कुछ लोग ख़यालों में रहा करते हैं
उस लम्हे तिश्ना-लब रेत भी पानी होती है
अब जो पत्थर है आदमी था कभी
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
राह भोला हूँ मगर ये मिरी ख़ामी तो नहीं