ये कह दिया है मिरे आँसुओं ने तंग आ कर
हमें ब-वक़्त-ए-ज़रूरत निकालिए साहब
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सज़ा-ए-मौत पे फ़रियाद से तो बेहतर है
मैं ख़ुद भी यार तुझे भूलने के हक़ में हूँ
किसी ने ख़्वाब में आकर मुझे ये हुक्म दिया
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
छोड़ कर मुझ को तिरे सहन मैं जा बैठा है
तभी तो मैं मोहब्बत का हवालाती नहीं होता
हमारे साँस भी ले कर न बच सके अफ़ज़ल
ये भी ख़ुद को हौसला देने का हीला है कि मैं
जब इक सराब में प्यासों को प्यास उतारती है
तो फिर वो इश्क़ ये नक़्द-ओ-नज़र बराए-फ़रोख़्त
कल अपने शहर की बस में सवार होते हुए