तू भी सादा है कभी चाल बदलता ही नहीं
हम भी सादा हैं इसी चाल में आ जाते हैं
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इक वडेरा कुछ मवेशी ले के बैठा है यहाँ
दालान में सब्ज़ा है न तालाब में पानी
हमारे साँस भी ले कर न बच सके अफ़ज़ल
वो जो इक शख़्स वहाँ है वो यहाँ कैसे हो
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
इसी लिए हमें एहसास-ए-जुर्म है शायद
तू रोज़ जिस के तजस्सुस में आ रहा है यहाँ
उस लम्हे तिश्ना-लब रेत भी पानी होती है
हमारा दिल ज़रा उकता गया था घर में रह रह कर
आदमी ख़्वार भी होता है नहीं भी होता
तिरी मसनद पे कोई और नहीं आ सकता