शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
तू सच बता ये मुलाक़ात आख़री है ना
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साथियो अब मुझे रस्ते में उतरना होगा
ये नुक्ता इक क़िस्सा-गो ने मुझ को समझाया
सज़ा-ए-मौत पे फ़रियाद से तो बेहतर है
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
ये कह दिया है मिरे आँसुओं ने तंग आ कर
ज़रा ये दूसरा मिस्रा दुरुस्त फ़रमाएँ
उस लम्हे तिश्ना-लब रेत भी पानी होती है
तिरी मसनद पे कोई और नहीं आ सकता
ये जो कुछ लोग ख़यालों में रहा करते हैं
जब इक सराब में प्यासों को प्यास उतारती है
तेरे जाने से ज़्यादा हैं न कम पहले थे