सज़ा-ए-मौत पे फ़रियाद से तो बेहतर है
गले लगा के कहूँ दार को मुबारक बाद
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शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
ये भी ख़ुद को हौसला देने का हीला है कि मैं
जब इक सराब में प्यासों को प्यास उतारती है
साथियो अब मुझे रस्ते में उतरना होगा
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
किसी ने ख़्वाब में आकर मुझे ये हुक्म दिया
आज ही फ़ुर्सत से कल का मसअला छेड़ूँगा मैं
तू रोज़ जिस के तजस्सुस में आ रहा है यहाँ
नहीं था ध्यान कोई तोड़ते हुए सिगरेट
तभी तो मैं मोहब्बत का हवालाती नहीं होता
उस लम्हे तिश्ना-लब रेत भी पानी होती है
भाव ताओ में कमी बेशी नहीं हो सकती