परिंदे लड़ ही पड़े जाएदाद पर आख़िर
शजर पे लिक्खा हुआ है शजर बराए-फ़रोख़्त
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जब इक सराब में प्यासों को प्यास उतारती है
ये भी ख़ुद को हौसला देने का हीला है कि मैं
तभी तो मैं मोहब्बत का हवालाती नहीं होता
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
आदमी ख़्वार भी होता है नहीं भी होता
तू भी सादा है कभी चाल बदलता ही नहीं
साथियो अब मुझे रस्ते में उतरना होगा
अब जो पत्थर है आदमी था कभी
कल अपने शहर की बस में सवार होते हुए
नहीं था ध्यान कोई तोड़ते हुए सिगरेट
बना रक्खी हैं दीवारों पे तस्वीरें परिंदों की