जाने क्या क्या ज़ुल्म परिंदे देख के आते हैं
शाम ढले पेड़ों पर मर्सिया-ख़्वानी होती है
Habib Jalib
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Gulzar
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Faiz Ahmad Faiz
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Jaun Eliya
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डुबो रहा है मुझे डूबने का ख़ौफ़ अब तक
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
सज़ा-ए-मौत पे फ़रियाद से तो बेहतर है
हमारा दिल ज़रा उकता गया था घर में रह रह कर
हमारे साँस भी ले कर न बच सके अफ़ज़ल
जब इक सराब में प्यासों को प्यास उतारती है
तू मुझे तंग न कर ए दिल-ए-आवारा-मिज़ाज
छोड़ कर मुझ को तिरे सहन मैं जा बैठा है
इक वडेरा कुछ मवेशी ले के बैठा है यहाँ
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
लोगों ने आराम किया और छुट्टी पूरी की
भाव ताओ में कमी बेशी नहीं हो सकती