इक वडेरा कुछ मवेशी ले के बैठा है यहाँ
गाँव की जितनी भी आबादी है आबादी नहीं
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तिरी मसनद पे कोई और नहीं आ सकता
ये कह दिया है मिरे आँसुओं ने तंग आ कर
तो फिर वो इश्क़ ये नक़्द-ओ-नज़र बराए-फ़रोख़्त
ये मोहब्बत के महल ता'मीर करना छोड़ दे
ज़रा ये दूसरा मिस्रा दुरुस्त फ़रमाएँ
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
हमारे ख़ून के प्यासे पशेमानी से मर जाएँ
किसी ने ख़्वाब में आकर मुझे ये हुक्म दिया
तू भी सादा है कभी चाल बदलता ही नहीं
आज ही फ़ुर्सत से कल का मसअला छेड़ूँगा मैं
बना रक्खी हैं दीवारों पे तस्वीरें परिंदों की
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना