डुबो रहा है मुझे डूबने का ख़ौफ़ अब तक
भँवर के बीच हूँ दरिया के पार होते हुए
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छोड़ कर मुझ को तिरे सहन मैं जा बैठा है
ज़रा ये दूसरा मिस्रा दुरुस्त फ़रमाएँ
हमारे साँस भी ले कर न बच सके अफ़ज़ल
दालान में सब्ज़ा है न तालाब में पानी
तेरे जाने से ज़्यादा हैं न कम पहले थे
उस लम्हे तिश्ना-लब रेत भी पानी होती है
तू मुझे तंग न कर ए दिल-ए-आवारा-मिज़ाज
ये कह दिया है मिरे आँसुओं ने तंग आ कर
इसी लिए हमें एहसास-ए-जुर्म है शायद
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
परिंदे लड़ ही पड़े जाएदाद पर आख़िर
आदमी ख़्वार भी होता है नहीं भी होता