छोड़ कर मुझ को तिरे सहन मैं जा बैठा है
पड़ गई जैसे तिरे साया-ए-दीवार मैं जान
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इतनी सारी यादों के होते भी जब दिल में
उस लम्हे तिश्ना-लब रेत भी पानी होती है
ये भी ख़ुद को हौसला देने का हीला है कि मैं
तभी तो मैं मोहब्बत का हवालाती नहीं होता
ज़रा ये दूसरा मिस्रा दुरुस्त फ़रमाएँ
आज ही फ़ुर्सत से कल का मसअला छेड़ूँगा मैं
हमारा दिल ज़रा उकता गया था घर में रह रह कर
बना रक्खी हैं दीवारों पे तस्वीरें परिंदों की
नहीं था ध्यान कोई तोड़ते हुए सिगरेट
अब जो पत्थर है आदमी था कभी