भाव ताओ में कमी बेशी नहीं हो सकती
हाँ मगर तुझ से ख़रीदार को ना कैसे हो
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तेरे जाने से ज़्यादा हैं न कम पहले थे
अब जो पत्थर है आदमी था कभी
जाने क्या क्या ज़ुल्म परिंदे देख के आते हैं
छोड़ कर मुझ को तिरे सहन मैं जा बैठा है
राह भोला हूँ मगर ये मिरी ख़ामी तो नहीं
दालान में सब्ज़ा है न तालाब में पानी
हमारा दिल ज़रा उकता गया था घर में रह रह कर
ये मोहब्बत के महल ता'मीर करना छोड़ दे
तू भी सादा है कभी चाल बदलता ही नहीं
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
तभी तो मैं मोहब्बत का हवालाती नहीं होता
आज ही फ़ुर्सत से कल का मसअला छेड़ूँगा मैं