अब जो पत्थर है आदमी था कभी
इस को कहते हैं इंतिज़ार मियाँ
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सज़ा-ए-मौत पे फ़रियाद से तो बेहतर है
तभी तो मैं मोहब्बत का हवालाती नहीं होता
ज़रा ये दूसरा मिस्रा दुरुस्त फ़रमाएँ
हमारे साँस भी ले कर न बच सके अफ़ज़ल
हमारा दिल ज़रा उकता गया था घर में रह रह कर
तिरी मसनद पे कोई और नहीं आ सकता
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
वो जो इक शख़्स वहाँ है वो यहाँ कैसे हो
छोड़ कर मुझ को तिरे सहन मैं जा बैठा है
ये भी ख़ुद को हौसला देने का हीला है कि मैं
आज ही फ़ुर्सत से कल का मसअला छेड़ूँगा मैं
तो फिर वो इश्क़ ये नक़्द-ओ-नज़र बराए-फ़रोख़्त