एक ही दाएरे में क़ैद हैं हम लोग यहाँ
अब जहाँ तुम हो कोई और वहाँ था पहले
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Faiz Ahmad Faiz
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हर आइने में तिरा ही धुआँ दिखाई दिया
चुप-चाप निकल आए थे सहरा की तरफ़ हम
हिज्र में इतना ख़सारा तो नहीं हो सकता
तू परिंदों की तरह उड़ने की ख़्वाहिश छोड़ दे
क्या मुसीबत है कि हर दिन की मशक़्क़त के एवज़
ज़मीं से आगे भला जाना था कहाँ मैं ने
ये जो सूरज है ये सूरज भी कहाँ था पहले
नींद आई न खुला रात का बिस्तर मुझ से
तेरी दुनिया से ये दिल इस लिए घबराता है
शिकस्त खा के भी कब हौसले हैं कम मेरे
मिरी तो आँख मिरा ख़्वाब टूटने से खुली
मिरी नज़र तो ख़लाओं ने बाँध रक्खी थी