उस की ख़ुशबू से मोअ'त्तर है मरी तन्हाई
याद उस की मुझे तन्हा नहीं होने देती
इब्न-ए-आदम हूँ ख़ता होती है मुझ से तस्कीन
उस की रहमत मुझे रुस्वा नहीं होने देती
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हिज्र के मारों की तक़दीर भी क्या होती है
तेरे जल्वों को रू-ब-रू कर के
ये काएनात मुनव्वर है तेरे जल्वों से
लब हमारे ख़मोश रहते हैं
जो मुज़य्यन हों तिरे हुस्न की ताबानी से
जो मिरी आरज़ू नहीं करता
हैं आँधियों में भी रौशन चराग़-ए-हक़ 'अफ़ज़ल'
जो महकता है बू-ए-उर्दू से
आसमानों पे नज़र आती है उस की सुर्ख़ी
बुलंदी से कभी वो आश्नाई कर नहीं सकता
लुटा रहा हूँ मैं लाल-ओ-गुहर अँधेरे में
क्या कभी उस से मुलाक़ात हुई है तेरी