क्या कभी उस से मुलाक़ात हुई है तेरी
नूर से जिस के उजाला है तिरी आँखों में
आइना देख के हैरान तुझे होता है
अक्स किस का है जो रहता है तिरी आँखों में
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अब भी रातें मिरी महकती हैं
जिन्हें ज़मीर की दौलत ख़ुदा ने बख़्शी है
बुलंदी से कभी वो आश्नाई कर नहीं सकता
ये काएनात मुनव्वर है तेरे जल्वों से
मैं ज़बाँ रखते हुए ख़ामोश हूँ
दश्त में तपते ग़ुबारों से तयम्मुम कर के
यादों के नशेमन को जलाया तो नहीं है
लुटा रहा हूँ मैं लाल-ओ-गुहर अँधेरे में
जो मिरी आरज़ू नहीं करता
चल रहे हैं क़तार में सूरज
ये हक़ीक़त है वो कमज़ोर हुआ करती हैं