हैं आँधियों में भी रौशन चराग़-ए-हक़ 'अफ़ज़ल'
अँधेरे कैसे समझ पाएँ रौशनी का मिज़ाज
नमाज़-ए-इश्क़ अदा करते हैं वो मक़्तल में
हुसैन वाले समझते हैं बंदगी का मिज़ाज
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लब हमारे ख़मोश रहते हैं
दश्त में तपते ग़ुबारों से तयम्मुम कर के
हमारी क़ुव्वत-ए-पर्वाज़ का सानी नहीं कोई
जो मुज़य्यन हों तिरे हुस्न की ताबानी से
दर-ब-दर भटका करेंगे रास्ता ढूँडेंगे लोग
इस क़दर जल्वा-ए-जानाँ को हैं बे-ताब आँखें
ग़मों की धूप में मिलते हैं साएबाँ बन कर
अब भी रातें मिरी महकती हैं
दिखा न ख़्वाब हसीं ऐ नसीब रहने दे
बुलंदी से कभी वो आश्नाई कर नहीं सकता
इस राज़ से वाक़िफ़ नहीं 'अफ़ज़ल' ये ज़माना