दयार-ए-इश्क़ में महरूमियों के हैं चर्चे
दयार-ए-हुस्न में मग़रूर सब नज़ारे हैं
उन्हें समझने की कोशिश तो कीजिए 'अफ़ज़ल'
वो दिल-फ़रेब निगाहों के जो इशारे हैं
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तू है ज़ाहिर परस्त ऐ दुनिया
हमारे चारों तरफ़ है हुजूम काँटों का
होता था जिन्हें देख के मसरूर मैं 'अफ़ज़ल'
यूँ इलाज-ए-दिल बीमार किया जाएगा
जिन्हें ज़मीर की दौलत ख़ुदा ने बख़्शी है
अब भी रातें मिरी महकती हैं
हैं आँधियों में भी रौशन चराग़-ए-हक़ 'अफ़ज़ल'
तेरे जल्वों को रू-ब-रू कर के
अब तो हर एक अदाकार से डर लगता है
तुम हमारे हो हम तुम्हारे हैं
इस राज़ से वाक़िफ़ नहीं 'अफ़ज़ल' ये ज़माना
लुटा रहा हूँ मैं लाल-ओ-गुहर अँधेरे में