अब भी रातें मिरी महकती हैं
एक दिन ख़्वाब में वो आता था
चलते चलते हुई कोई आहट
मुड़ के देखा तो मेरा साया था
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बुलंदी से कभी वो आश्नाई कर नहीं सकता
यादों के नशेमन को जलाया तो नहीं है
दर-ब-दर भटका करेंगे रास्ता ढूँडेंगे लोग
यूँ इलाज-ए-दिल बीमार किया जाएगा
इस राज़ से वाक़िफ़ नहीं 'अफ़ज़ल' ये ज़माना
आसमानों पे नज़र आती है उस की सुर्ख़ी
लुटा रहा हूँ मैं लाल-ओ-गुहर अँधेरे में
जो मिरी आरज़ू नहीं करता
दश्त में तपते ग़ुबारों से तयम्मुम कर के
जिन्हें ज़मीर की दौलत ख़ुदा ने बख़्शी है
इस क़दर जल्वा-ए-जानाँ को हैं बे-ताब आँखें
ये हक़ीक़त है वो कमज़ोर हुआ करती हैं