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अपनी तन्हाइयों के ग़ार में हूँ - अफ़ज़ल इलाहाबादी कविता - Darsaal

अपनी तन्हाइयों के ग़ार में हूँ

अपनी तन्हाइयों के ग़ार में हूँ

ऐसा लगता है मैं मज़ार में हूँ

तू ने पूछा कभी न हाल मिरा

मुद्दतों से तिरे दयार में हूँ

तेरी ख़ुशबू है मेरी साँसों में

जब से मैं तेरी रहगुज़ार में हूँ

मुझ पे अपना है इख़्तियार कहाँ

मैं तो बस तेरे इख़्तियार में हूँ

मुझ को मंज़िल से आश्ना कर दे

मैं तिरी राह के ग़ुबार में हूँ

जब से तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ उठी

चाँद तारों की मैं क़तार में हूँ

मुझ को दुनिया से क्या ग़रज़ 'अफ़ज़ल'

मैं तो डूबा ख़याल-ए-यार में हूँ

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