मैं चाहता हूँ मुझे मशअलों के साथ जला
कुशादा-तर है अगर ख़ेमा-ए-हवा तुझ पे
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कौन शाएर रह सकता है
ये नहर-ए-आब भी उस की है मुल्क-ए-शाम उस का
बहुत न हौसला-ए-इज़्ज़-ओ-जाह मुझ से हुआ
कमान-ए-शाख़ से गुल किस हदफ़ को जाते हैं
हम कसी से पूछे बग़ैर ज़िंदा रहते हैं
किताब-ए-ख़ाक पढ़ी ज़लज़ले की रात उस ने
सितम की तेग़ पे ये दस्त-ए-बे-नियाम रक्खा
कोई न हर्फ़-ए-नवेद-ओ-ख़बर कहा उस ने
अगर तुम तक मेरी आवाज़ नहीं पहुँच रही है
मैं दिल को उस की तग़ाफ़ुल-सरा से ले आया
इस दिल को किसी दस्त-ए-अदा-संज में रखना
सिर्फ़ ग़ैर-अहम शाएर