कमान-ए-ख़ाना-ए-अफ़्लाक के मुक़ाबिल भी
मैं उस से और वो फिर कज-कुलाह मुझ से हुआ
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मैं चाहता हूँ मुझे मशअलों के साथ जला
फ़ैसला
अगर हम गीत न गाते
यही बहुत थे मुझे नान ओ आब ओ शम्अ ओ गुल
कमान-ए-शाख़ से गुल किस हदफ़ को जाते हैं
इस दिल को किसी दस्त-ए-अदा-संज में रखना
वो अपने आँसू एक नाज़ुक हेयर ड्रायर से सुखाती है
इक शाम ये सफ़्फ़ाक ओ बद-अंदेश जला दे
कोई न हर्फ़-ए-नवेद-ओ-ख़बर कहा उस ने
सिर्फ़ ग़ैर-अहम शाएर
ज़िंदगी हमारे लिए कितना आसान कर दी गई है